दुनिया भर के तमाम संवेदनशील
पुरुषों के नाम लिख रही हूँ
ये माफ़ीनामा !
इस उम्मीद पर की वो मुझे माफ़ करने में
अपनी उदारता अवश्य दिखलाएंगे ।
ये समय वाक़ेई कितना चकित करने वाला है कि -अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस के गुज़र जाने के दो दिन पश्चात भी
आख़िरकार नहीं उभरी ज़हन में कोई ऐसी निराली बात
या की
कोई सुहानी सी याद
जिसे अहसासों के मनकों में पिरोकर
समस्त पुरुषों को निवेदित कर सकूं और एक बार धन्यवाद कह सकूँ...
ऐसा भी नहीं कि -
जीवन भर न देखें हों
कभी मेरी इन आँखों ने
किसी दयावान, साहसी या धैर्यवान
पुरुष को अपने आसपास ....
न पढ़ी हो किसी सादगी से भरे कवि की कोई विलक्षण कविता !
किसी चित्रकार या मूर्तिकार की कला पर
न रीझा हो मेरा मन एक बार भी ....
अस्पताल , मन्दिर या रेलवे प्लेटफॉम के फाटक पर भी देखें हैं कई बार मैंने,
निष्स्वार्थ भाव से सेवारत अनेक
पुरुषों को...
चिकित्सक, कृषक, गायक, अभिनेता, संगीतकार, खिलाड़ी को भी
देखा है बड़ी ही शिद्दत से
अपना सर्वश्रेष्ठ
योगदान देते हुए ....
मगर पुरातन काल से लेकर वर्तमान समय तक
ज़र, जोरू और ज़मीन के नाम पर
जितनी बर्बरता दिखलाई है
इस संसार को तुम्हारी प्रजाति ने कि-
उसके परिपेक्ष्य में करुणा का अनुपात,
अब भी बहुत कम है तुम्हारा
इस धरा के नाम ....
अपनी ही हिंसा, वहशियत और विकृत मानसिकता के ऐसे अमानवीय उदाहरण जग को दिए हैं
तुम्हारी बिरादरी ने कि -
प्रत्येक अप्रत्याशित समाचार के साथ मनुष्यता ही लांछित एवं
शर्मसार होती रही ।
हे बंधु !
मैं जानना चाहती हूँ
आज कि -आख़िर कब समझोगे तुम कि -
ये धरती जितनी तुम्हारी है
उतनी ही हमारी भी है..
एक के बग़ैर दूसरे की
भला क्या और कितनी हीअहमियत ?
और कितने साल लगेंगे
तुम्हें साथी!
नारी के मर्म वेदना एवं भावनाओं को समझने के लिए ....
आख़िरकार क्यों आमादा हो
अपने ही कुल के विनाश के लिए तुम ..
चाहे अब जितनी भी और क्रूरता की
अपनी साध
क्यों न पूरी कर लो
इस तरह तो तुम स्त्री की अस्मिता को कतई नष्ट न कर पाओगे
अंत में अपनी ये विरासत किसे सौंप जाओगे ......?
आओ हमारी पृथ्वी को हम तुम मिलकर इस पल सुंदर बनाएं...
क्यों न
संवेदना ,सद्भावना , समरसता , सम्मान और सहिष्णुता को अपनाएं .....
इस धरती पर प्रेम, मैत्री और भाईचारे के महकते पुष्प खिलाएं ।
■
|| खाने की मेज़ पर बुलाने की तमन्ना है ||
न जाने कितने ही लोगों को
इस बरस भी खाने पर
बुलाना रह गया
और न जाने कितने ही लोग दोबारा जल्दी मिलने का कह कर इस भरी दुनिया से निःशब्द चले गए
प्रेमसिक्त पंखुड़ियों को उड़ेलकर किसी के लिए सुरुचिपूर्ण रसोई पकाना
किसी का माथा चूमने से अधिक
साहस और संतोष का काम है
घर के तमाम बर्तनों में अब भी
किसी के नाम की
आसक्ति और प्रतीक्षा धड़कती है
जिसे हम हृदय की कंदराओं में जीते हैं
कुछ प्याली और तश्तरी उठाकर
आलय के ऊपरी कमरे के पीले संदूक में
सूती कपड़े में बांधकर रख दी है
ताकि उनकी चमक और रंगत
आगंतुकों के
आकर्षण का केंद्र बनी रहें
और उन्हें अपनी
श्रेष्ठता का बोध होता रहे
खाने की मेज़ का वह अकेला कोना
जिस पर बैठकर टुकुर-टुकुर
निहारा करते थे
आज उस पर नूतन आवरण बिछाया है
जल्दी ही किसी रोज़ उन्हें खाने पर
बुलाने की तमन्ना है
असंख्य मनपसंद व्यंजनों की
एक सजीली थाल सजाई है
प्रत्येक कौर को ख़ूब मन से मीसकर
ग्रास बनाया है
ताकि हाथों के स्पर्श का स्वाद
आहार में घुलता रहे
पुरखिनों को कहते सुना था,
दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है
भोजन के उपरांत उँगलियाँ चाटना
मन काअतिरिक्त मुदित होना ही तो है
■
|| कफ़न में जेब नहीं होती ||
प्रेमियों ने ख़ूब छिप -छिपकर
प्रेम किया
और थामे रखा बेहद मज़बूती से
अपनी बेमेल गृहस्थी के
कच्चे सूत को
लाते रहे साल-दर -साल
पत्नि और प्रेयसी के लिए
एक जैसे ही उपहार
परन्तु उन्हें सौँपते वक़्त
ये कहकर, वादा लिया
केवल प्रेमिकाओं से कि -सुनो!
सामूहिक मेल - मिलाप
वाले स्थानों पर वर्जित है
तुम्हारे लिए,
मेरी लायी हुई वस्तुओं का उपयोग
अलबत्ता, अकेले में तुम
ख़ूब पहनना
छोटे-छोटे फूल वाले गुलाबी सूट,
चमकती हरी नग वाली त्रिकोण अगूंठी
और श्रीलेदर के
कत्थई रंग वाले पर्स
कितनी ही बार
प्रेमिकाओं की
निजी स्वतंत्रता पर लगाया अंकुश
अधिकार जमाया बे रोक-टोक,
और न जाने कितनी ही दफ़े
बेमौसम फ़ोन पर धौंस जमाकर
बिगाड़े सारे ज़रूरी काम
खाली वक़्त में ख़ूब किया
घंटे-घंटे भर वार्तालाप
और जो उनका मन
कहीं और लग गया हो,
तो प्रतीक्षारत प्रेयसी से बना रखी
पहरों -पहर दूरी
दफ़्तर, बाज़ार, अस्पताल व उत्सवों में
बने रहे निरे अजनबी
चुराते रहे आँख,
झुकाते रहे गर्दन
और बनते रहे थोड़ा और अधिक
पत्निभक्त!
इधर सरसों के फूल -सा पीलापन
ओढ़कर प्रेमिकाएं!
गिराती रही हर बार गर्भ
भींचती रहीं मुठ्ठी
चबाती रही नाखून
और पीती रही गिलोई
ऐसी प्रेयसियाँ शहनाई से
कभी कर न सकी मुहब्बत
दिखा न सकीं
देह पर गुंथे नीले काले निशान
एकाकी सिमटती और घुलती रही
मन के भीतर उमड़ते अंतरद्वन्द से
समय बीतता गया
दूरियाँ बढ़ती गईं
साथी की मामूली ज़िम्मेदारियों से भी,
अब प्रेमियों को कोई वास्ता न रहा
भरी -भरी आँखों वाली
कुम्हलाई प्रेयसियाँ!
पुरज़ोर हिम्मत जुटाकर
काटती रही इकतरफ़ा
बिना किसी सुनवाई की सजा
बनाती रही हर पल जीने की राह
और जोड़ती रही मुस्कुराहटों के तंतु
लिजलिजे प्रेमियों ने सालों बाद
प्रेम को स्मरण किया
लिखा - "तुम्हारी याद आती है "
मिलने का मन करता है
कहां हो तुम?
प्रेमिकाएं आत्मविश्वास से भर उठीं
और देर तलक सोचती रहीं कि -
बचाकर ले जा सको, तो लेते जाओ
किसी की अंर्तवेदना!
किसी की प्रतीक्षा!
किसी की पुकार!
या किसी का विश्वास!
क्योंकि कफ़न में जेब नहीं होती ...
■
|| याददाश्त ||
मेरे ज़हन में जज़्ब रहती हैं
तमाम अच्छी और बुरी यादें
ठीक उसी तरह
जैसे किसी अभिशप्त आत्मा की
स्मृतियों में धड़कता रहता है
बीते पूरे सदी का लेखा जोखा
उसकी इच्छा के विरुद्ध
मैं नदी के मुहाने पर
विनीत भाव से
पैरों को जलमग्न किये
एकाकी बैठी रहती हूँ
कई- कई बार
ज्यों कोई उत्तंग लहर आकर
बहा ले जाये मेरे स्मरण की सारी दलीलें
या की दूरस्थ किसी तुंग के
सबसे ऊंचे शिखर पर पहुंच कर
बेख़ौफ़ चीखती रहती हूँ
प्रलय के अंतिम उस क्षण तक
जिस पल तक बेआवाज़ होकर
सारी अतीत की सुधियाँ हो न जाएं मेरी धमनियों से विस्मृत
स्मृतियों के दंडकारण्य में उलझी
अपनी ही दुर्दशा पर
न जाने कितनी ही बार
खाती रहती हूँ यूँ ही तरस
काश! किसी पावन मंत्रोच्चार की गूंज से
धूल -धूसरित होकर
अंतर्ध्यान हो जाएं समस्त जीवंत कथाएं
निद्रा में मगन होकर भी सदैव
जाग्रत रहती हैं मेरी शापित इंद्रियां
जैसे संजोई गई गुड़ से मीठी
और नीम से भी कड़वी
यादों की जंजीरों में क़ैद हो
अवचेतन में चौंक उठे
शिथिल पड़ी कोई देह
अविराम स्मृतियों की सम्पूर्ण सजगता
विध्वंशक बन जाती है हर बार
शाश्वत जीवन के लिए
एक समय के पश्चात
अतीत को भूल जाना
विशोक का आह्वान ही तो है
हाँ! नेमत ही तो है बिसरना!
सांसों के निर्बाध स्पंदन के लिए..
■
|| मां ने सदा निर्दोष जीवन जीया ||
मां ने सदा एक निर्दोष जीवन जीया
देह के विरुद्ध जाकर उसने
अनुशासन को साध लिया था
किसी दिन स्मृति में कौँधती है
वह धुंधली -सी छवि
जब हाड़ कंपाती ठंड में
ज्वर से तपते बदन को ढोती मां!
रमी हुई थी
निरंतर अपनी ही गृहस्थी को
संवारने की किसी अज्ञात धुन में
इस बात से बिल्कुल बेफ़िक्र कि -
कोई नहीं आयेगा उसके माथे पर
श्वेत गीली पट्टीयां रखने
या की
दो घूंट अदरक कूटी चाय की
चुस्की पिलाने
मुझे जनते बखत भी उसके
कानों में पड़े थे वही फुसफुसाते
शीशे से पिघलते आग्नेय शब्द
इस बार फिर से बेटी...?
इतनी हताशा के पश्चात
निश्चित ही,
नितांत परितक्त से
बीते होंगे सूतक के
पूरे इक्कीस दिन
रूठी किस्मत को समेट
नहीं पीया होगा मां ने
कभी हरदी घोरकर गरमा-गरम दूध
और न ही कभी
सर्द हवाओं से सुरक्षा की ख़ातिर
बांधी होगी कनटोपी
मुझे ज्ञात है - नल की धार पर खुल्ले में
पसरकर ख़ूब मली होगी
जूठी कढ़ाई में चिपकी खुरचन
या की देर साँझ तक धुलती रही होगी
नवजात के पोंतड़े
बेटी-पर-बेटी जनते ही
मां ने,
किफ़ायत की कुंजी सहेज ली होगी
फिर कभी नहीं फैलाई होगी
अपनी आँखें
किसी चमकती हुई
वस्तु या द्रव्य को देखकर
आँचल में गांठ बांध -बांधकर
पूरी करती रही गृहस्थी के ख़र्चे
इधर बेटियों को अंजान लोगों
और अँधेरी सड़कों पर जाने से
बचाती रही उम्रभर
सिलती रही रंग-बिरंगे झिँगोले
जांता सिलबट्टा और मूसल में
अनाज के दानों को तोड़ती-पीसती
सुप में फटककर चुनती-बिनती रही
बहुत लंबे समय तक
आश्चर्य! साबुत लाल मिर्च के चूर्ण को
डिब्बे में भरते बखत भी
क्या कभी नहीं,
लहरे होंगे उसके सुंदर
लंबी ऊँगलियों वाले हाथ
क्या कभी नहीं जली होगीं उसकी
विलक्षण आँखें
मां ने कितने ही तो देवताओं को पूजा
न जाने कितने ही तो व्रत रखती रही
आमरण पूर्वजों के समक्ष शीश नवाए
तीर्थों से समेटकर लाती रही
पत्थर और मिट्टी
मां कहती रही - जिस जगह जाओ
वहाँ की हवा में फैली ख़ुशबू को
अपने फेफड़े में भर लो
सहेज सको तो,
पाहन और रज को सहेज लो
ताकि उनके स्पर्श
अंत समय तक हमारे साथ बने रहें
कितनी कम चाहना के साथ
जीती रही मां!
और चलता रहा घर..
पति एकान्तप्रिय एवं क्रोधी हो
तो पत्नियों के हिस्से आती है
सुबकती हुई सुबहें!
दोपहर तक सारा काम निपटाकर
वो घर के पिछवाड़े
अमरुद और कटहल के पेड़ के
साये में टहलती रहती है
अपने जिगर के टुकड़े को
सीने से चिपकाये
ताकि शिशु के रुदन से
किसी तरह खलल न पड़े
मुखिया की निद्रा में
व्यक्तित्व और विमर्श के धनी पिता!
मां के लिए
कभी उदार न बन सके
अपितु सपर्पित रहे जीवनपर्यंत
गृहस्थी के तिनके जुटाने में
चलती ठहरती अब प्रायः यही
सोचती रहती हूँ कि -
उस दौर की तमाम स्त्रियों ने
कितनी बेबसी में
सामंजस्य को प्रेम का नाम दिया होगा
■
|| ग़ुमशुदा ||
प्रतिदिन रात्रि के तीसरे पहर
मंगलाचरण गुनगुनाती हुई कुछ
ग़ुमशुदा आकृतियां उभर आती हैं
सजल नेत्रों के परकोटों के मध्य ....
जिनके साथ सुर में सुर मिलाते ही
बेताल हो जाती है जीवन की लय !
धूमिल स्मृतियां खींच ले जाती हैं
छद्म भेष भूषा वाले किसी योगसाधना की ओर
और मन अपनी व्यग्रता से बाध्य होकर
वहीं कहीं ले लेता है सम्पूर्ण जलसमाधि ......
■
|| स्कूल से छूटती लड़कियां ||
सदल
वृंद
या जत्थे में स्कूल से छूटती
लड़कियां चहचहाती हुई
लगती हैं
बिल्कुल रामचिरैया जैसी
लाल नीले हरे सफ़ेद
रीबन से सजी
उनकी चोटी में गुंथे होते हैं यूँ तो
दिन भर के क़िस्से और हैरतअंगेज़ अनगिनत कहानियां भी
अपनी ही पीठ पर लदे बस्ते में
किताब कॉपी और अचार से सने टिफिन डब्बे के मध्य
न जाने वो कब चुपके से
समेट लेती हैं
भविष्य में पूरे किये जाने वाले
बड़े कामों की एक लम्बी सूची
स्कूल से छूटती लड़कियों को
अक्सर भाता है
गली के मोड़ पर रुक - रुक
वार्तालाप करना
और बनाते चलना
ख़ूब सारी कच्ची - पक्की योजनाएं
आने वाले कल की....
स्कूल से छूटती लड़कियों की नज़रें
निरंतर ढूंढा करती हैं
परिसर के आसपास लगे
ठेलों और गुमटियों में
अपनी मनपसंद
बोरकूट, फल्ली, मीठीइमली, जलेबी
चनाचपटी और पापड़ी
अपनी ही कही
और
अपनी ही धुन में रमी
स्कूल से छूटती ये अल्हड़ लड़कियां
बाज़दफ़े बिल्कुल बेसुध
और बेख़बर रहतीं हैं
स्कर्ट या कुर्ते में लगे
दाग़ - धब्बों के छीटों से
घर के आँगन में प्रवेश करते ही
माँ चाची या दादी की पड़ती है
उन धब्बों पर पैनी नज़र
और तब हाथ खींच कर
ले जाती है माँ!
अँधेरे कोने वाले बरामदे या कोठरी में
समझाती बताती हैं
धीरे से अपनी आपबीती
कहती हैं -
आगे के पांच से सात दिन बीतेंगे कठिन,
न जाना दादी के कमरे,
पूजा घर या की रसोई में
रहना परिवार वालों से थोड़ा दूर दूर..
स्कूल जाती लड़कियां
अवाक होकर सुनती हैं
सारी हिदायतें
कोसती हैं
बार - बार उसी मुए दाग को
जिसके कारण उनकी स्वतंत्रता
आज प्रतिबंधित हुई
यकायक सखी सहेलियों से
किंचित विलग और बड़े होने का
मन में अहसास छुपाये
कक्षा में कदम रखते ही
लड़कियां ख़ुद को बरबस ही
समेटने का करती हैं
बारम्बार प्रयास
स्कूल से छूटती लड़कियां
अब समय पर पहुंचतीं हैं घर
गली मुहल्ले या छज्जे में दिखती हैं कम
कतराती हैं अतिरिक्त
किसी शिक्षक के
समीप आने से..
रहती हैं इन दिनों तनिक
उदास .....उनींदी.....
■
|| अल्प में कहन का हुनर हमें न आया ||
जो लोग रातों को जागा करते हैं
वो हरगिज़ अपनी रातें ज़ाया नहीं करते ।
देर रात वो सुनते हैं अपनी मनपसंद कोई ठुमरी !
पीते हैं हार्ड कॉफ़ी,
पढ़ते हैं -रिल्के, नीत्शे, नेरुदा, दान्ते, रूमी, कीट्स और
काफ़्का का रचना साहित्य...
दोहराते हैं फ़राज़, मोमिन, मीर
और फ़ैज़ की नज़्में ...
डायरी में लिखते हैं
पोस्टपोंड की गई अनगिनत ख़्वाहिशें ...
सुनते हैं नीरवता की अनुगूँज !
नई पौध के रोपण की बनाते हैं योजना !
लिखते हैं किसी अपने के नाम कोई माफ़ीनामा...
बाज़ दफ़े नज़दीक से देखते हैं
किसी हमदर्द का पार्श्वचित्र !
गढ़ते हैं कल्पनाओं की कूँची को थामे
बेहिसाब अफ़सानों का संसार ....
रात के दूसरे पहर चकोर के
रुदन में होते हैं शामिल ...
याद करते हैं पिछली बार
अपनी मां पर उतारी तमाम झुंझलाहटें !
और प्रसवपीड़ा के अंतिम चरण में
दम तोड़ देने वाली वेदना की लहर ....
साधते हैं फूल को नुक़सान
पहुंचाए बिना,
भँवरों के रसास्वादन की कला ....
चूमते हैं सितारों भरे आसमान का माथा!
धरती को देते हैं असंख्य धन्यवाद!
जिस हमनवां से कभी हमनवाई न थी
उनसे भी करते हैं बेफ़िक्र एतरफ़ा गुफ़्तगू !
देश - दुनिया की दिल दहलाने वाली ख़बरों पर
होते हैं सोगवार ....
ढूंढते हैं अन्न को उपजाने की नई तरतीब!
अलाव बुझाकर खुले में महसूसते हैं सीमा पर तैनात सैनिकों की दशा ....
रखते हैं समभाव व सम्यक दृष्टि !
प्रतीक्षा करते हैं पारिजात के झड़कर
वसुधा को चूमने के उस एक क्षण का ...
लिखते हैं भोर की आगत !
और गोधूलि के गीत !
इसी क्रम में अलसुबह तक
कहने को न जाने होता है,
कितना सारा वितान
उनकी कलम के पास ...
इसीलिए शायद,
अल्प में कहन का हुनर हमें न आया !!
■
|| विदा ||
न जाने कितनी ऋतुएं
न जाने कितनी स्मृतियां
न जाने कितनी यातनाएं
और न जाने कितनी विदाएँ
हृदय के प्रकोष्ठ में समेटे बैठी हूँ
समेटे बैठी हूँ वक्षस्थल पर
एक दुदान्त मौन !
और आमोद के दिनों की
प्रीतिकरआलाप भी
जागती आंखों में
अब भी अंजोरे बैठी हूँ
शाख से विलग हुए उस पीले पर्ण की
अंतर्वेदना के मर्म को
मछली की मां के पुत्रशोक से
व्यथित रही कई - कई सदियों तलक
पिंजरे में कैद उस खग की लाचारी पर
हज़ारों बार धुन चुकी हूं
अपना ही माथा !
जाते हुए मौसम
और खोए हुए परिजनों को कभी
विदा न कह पाने की कसक से
कराहती रही हूँ पूरी उम्र
विस्मृति और निद्रा के वरदान से
वंचित हूँ सहज ही जन्मगत
"विदा" जैसे महत्वपूर्ण शब्द
न जाने क्यों सदैव अदृश्य ही रहे
मेरी भाव तूलिका से
क़े जिस स्वर्णिम तरंग के संग कभी
तरंगित होकर जीया गया हो
जीवन का एक भी सुंदर क्षण
उसे अलविदा भला कोई कहे भी तो कैसे
विदा कह पाने के लिए
अपरिहार्य है पथराई आंखें
प्रयोजनीय है नितांत सूना मन
और अपेक्षित हैं प्रबल साहस
"विदा" दरअसल स्मृतियों में दर्ज़
उस निमिष का नाम मात्र है
जिसमें अंतर्निहित होते हैं
जीवन में घटित श्वेत - श्याम
परिदृश्यों के विविध रंग....
■
|| मैंने अपनी दादी को नहीं देखा ||
मेरे पिता आजीवन वंचित रहे
अपनी माता के वात्सल्य से
और मैं,
जीवनपर्यंत विमुख रही
अपनी ही दादी की
स्मृतियों से
बचपन में गांव घर के कुटुंब से
कहते सुना था कई बार
कि जब दादी
अपने दुधमुंहे बच्चे को छोड़
परलोक सिधार गईं
तब छोटकी बुआ ने
पिता को मां जैसा स्नेह दिया
पाला-पोसा और बड़ा किया
विषण्ण हो उठता है मन
ये सोचते ही कि
नवजात शिशु को त्याग कर
स्वर्ग जाती किसी स्त्री के
हृदय की व्यथा,
भला कितनी त्रासद रही होगी
बिन माँ के बच्चों को इस संसार ने
गले से लगाये रखने की जगह
दुःखापन्न कहकर पुकारा
माँ कीआसक्ति से विपन्न
हतभागी बच्चे
कभी नहीं जान सके
ज्वर में तपते माथे पर
स्नेहसिक्त शीतलता के
स्पर्श का रहस्य
या की
माँ के बनाए अमूल्य व्यंजनों का स्वाद
माता विहीन स्कूल जाते बच्चों ने
न कभी माँ की दी हुई हिदायतें सुनी
और न ही कभी देर तलक
खेलते हुए बच्चों ने सुना,
समय पर
घर लौटआने के मनोहारी शब्द
बड़े होकर स्त्रियों से संवेदनात्मक संबंध
स्थापित करने की पारी में
इन्हीं बच्चों ने
कभी अपने मन की नहीं सुनी
और न ही कभी विनयशीलता का
कोई परिचय ही दिया
अपनी माँ से बिछड़े मेरे पिता ने
पूर्वजों की मातृभूमि
"मालदहा" की स्मृतियों को आमरण
संजोये रखा कुछ ऐसे कि जैसे
कोई नन्हा बालक अपने खिलौने के
बक्से की करता हो पहरेदारी
इधर सुनती हूँ अपनी दादी से
बच्चे करते हैं
ख़ूब सारा लाड़
मनवाते हैं अपनी सारी छोटी बड़ी ज़िदें
चूमते हैं घड़ी-घड़ी
उनके गाल और भाल
इन दिनों रात्रि के दूसरे पहर
अनगिनत तारा - मंडलों के विशाल कक्ष में
ढूंढती हैं मेरी दो सजल आँखें
अपनी ही दादी का सुरम्य चेहरा
वही लाल पाड़ वाली
सफेद साड़ी का गोटेदार पल्लू
और भौंहों के मध्य
बड़ी-सी गोल बिंदी
कि जैसे,
पहाड़ियों की ओट से
उदित होता हो
भोर का सूर्य
माई री !
आज कौन जतन करूँ कि
क्षण भर को दिख जाए
मेरी कल्पनाओं के धरातल पर
अंकुराती दादी की आकृति
ये भी तो मेरे हिस्से का दुर्भाग्य,
मैंने अपनी दादी को कभी देखा नहीं
■
|| भूल जाना चाहती थी रास्ते ||
भूल जाना चाहती थी उन रास्तों को
जिनसे गुज़रते हुए
किसी मोड़ पर तुम्हारा मिलना तय था ।
अपने - अपने दुःखों को सीने से लगाकर एकांत की आड़ में
हम दो लोग जी रहे थे
एकदम निष्तेज़
बाक़ी का सारा जीवन .....
प्रार्थना में जुड़ी
दोनों हथेलियों ने
पूजा के फूलों के मध्य
सम्बधों की ऊष्णता को
हृदय की गहराई से
कई बार महसूस भी किया ...
मगर धीर धरे मन की
कही के आगे
ख़ामोश रहे लब सदा ...
अनिश्चितता मुलाक़ातों का हासिल है ।
विधि का विधान ही कुछ ऐसा है कि-
एक जैसी सोच वाले दो लोग अक्सर मिलते हैं
उम्र की ढलती हुई दुपहरी में ....
हाँ ! लेकिन सांझ होने से थोड़ा पहले ।
एक बार नहीं
मनपसंद चीज़ें बार - बार खो जाया करती हैं ....
जितना भी सहेज कर क्यों न रखो ।
समंदर में उठती गिरती
लहरों की तरह ,
अनगिनत बार मिलना-बिछड़ना भी लगा रहता है
सदैव अनुरक्ति में ।
अब जो मिले हैं नसीब से
तो ओ साथी !
आओ संकल्प करें कि -
रखेंगे पहले की तुलना में तनिक अधिक ख़्याल एक दूजे का ...
आपसी समझ के दायरे में
संवादों को महफूज़ रखेंगे
सदा के लिए ।
सहलाएंगे संवेदना से भरी ऊंगलियों से
माथे की उलझी लटें...
साथ गुज़रे हों जिन रहगुज़र से
उनको फिर कभी तन्हा न होने देंगे ।
■
|| नीम ||
ये नीम के फूलने का समय है ।
अपनी कड़वाहट में असंख्य
औषधीय गुणों को समेटे
यह गाछ बरसों से
अपने दिव्यता की पहचान बना है ।
इसकी पत्तियां, टहनियां, फूल , फल
छाल और यहाँ तक की जड़ें भी
रोगमुक्त करती आयी है
प्राणी एवं वनस्पतियों को ।
नीम के छायादार अस्तित्व ने
न जाने अब तक
कितने ही गगनचरों को नीड़
और
पथिकों को
चैन-ओ-सुक़ून दिया है ।
फ़ुर्सत की कोई दोपहर
जब अलमस्त
स्मृतियों की जुगाली भरती है
तब आज भी गांव ज्वार में
पूरे शानो-शौक़त से
चौपाल जमती है
इसी नीम के तले ...
अक्सर निम्बोलियों के पक कर
टपकने का मौसम
बेहद प्यारभरा होता है ।
कुछ - कुछ ठीक वैसा ही
जैसे दुलार करती हुई मां !
अपनी संतान पर किसी रोज़
अत्यधिक ममता लुटाया करती है।
नीम हर लेती है देह की सारी पीड़ा
संक्रमण से जूझ रहे मनुज की ...
शीतला माता, काली मईया और शनिदेव !
प्रसन्न होते हैं
इसकी हरियल पत्तियों
और
लकड़ियों से ।
यूँ तो हवादार नीम !
भारतीय मूल का एक पर्णपाती वृक्ष है ।
इसके पल्लवों को जोड़कर
घर के मुख्य द्वार पर ख़ुशियों के
बंदनवार लगाए जाते हैं ..
ताकि
अनिष्ट से बचा रहे जीवन !
■
|| लौटना होगा ||
लौटना होगा फिर उसी मोड़ पर
जहां से साथ चलना
शुरू किया था...
इस लौटने में न जाने कितना कुछ
एक दूसरे के पास रह जायेगा
जिसे चाहकर भी कभी
हम लौटा न सकेंगें ।
लौट आना दरअसल
एक बेहद उदासी भरी क्रिया है ...
मन मारकर जैसे लौट आता हो ,
कोई मछुआरा !
ख़ाली कुलाबों को लेकर
नदी के तट से ।
लौटना लक्ष्य के पूरा न होने का संकेत भी है ...
जैसे रोज़गार की तलाश में निकले
युवकों का काम न मिलने पर
एक खींझ के साथ
घर लौट आना ।
लौटना अपने रोमांच को
कहीं न कहीं
सरे - राह !
अधूरा छोड़ना भी है ...
जैसे कटी कोई पतंग
धराशाई हो जाती है
अपनी ही छत पर ।
लौट आना
समय, काल, परिस्थिति
और परीजनों के लिए
आवश्यक है ....
जैसे मौसम के बिगड़ते ही ,
तेज़ बारिश और गाज से बचने के लिए
परिंदे अक्सर लौट आते हैं
अपने -अपने डेरे पर ....
लौटना हर बार पक्षियों का उल्लास भरा
कलरव नहीं होता ...
लौटने के लिए ऊंची - नीची पगडंडियों को
नापना पड़ता है
दोबारा इंच -दर -इंच...
हाँ! वो लोग
निश्चित ही कभी
लौटना नहीं चाहते
जिन्होंने साथ मिलकर
सुरीले सलौने सपने संजोए हों
सुखद भविष्य के ..।
हालात से मजबूर
और हताश हो चुके लोगों का ,
एक समय के बाद ये मान लेना कि -
हमारा साथ !
नियति ने शायद यहीं तक लिखा था
जैसे दुर्भाग्य के समक्ष घुटने टेकना ही है.
यूँ तो बहुत दूर तक संग चलकर लौट आना
अपनी ही धुरी पर ...
एक अत्यंत थका देने वाली प्रक्रिया है ।
■
|| असमंजस की पीड़ा ||
सारा यथार्थ उलीचने के पश्चात
बाकी रहा नहीं कुछ भी
जताने को प्रीतिकर
मन दुःखी हो तो ख़ूब बातें होती हैं
तबियत उदास हो तो
झीना - सा पर्दा आवश्यक है
शहर में मुख्य सड़क के
अलावा भी कई संकरी गलियां हैं
जिस पर चलकर पहुंचा जा सकता है
कॉफ़ीशॉप वाले पुस्तकालय तक
देर रात तक कमरे में बैठकर
सोचा जा सकता है
किसी चित्रकार की कूची में
बिखरे रंगों के विषय में
कैमरे में झाँककर
तस्दीक़ की जा सकती है
नेपथ्य में बज रहे
सुरमई संगीत के रहस्य के विषय में
इस संसार में सबसे कठिन है
प्रेम को पाकर भी
उसे अभिव्यक्त न कर पाने की कसक
कितने ही छलावे में भटकता है ये मन
सामने से बीते हुए को निकट आता देख
कुलाँचे भरने लगता है, जतन करता है
ये जानते हुए भी की वायुमंडल में
मेघ के साथ तैरते हैं रजकण अनेक
प्रत्येक प्रिय का विछोह एक दिन तय है
छूटना स्मृतियों में दर्ज़ होता रहता है
फिर हम क्यों समेटने के हुनर से
वंचित रह जाते हैं
अंधेरे की सुंदरता मोह लेती है
उजाले में उपजी मौन की भाषा से
अनभिज्ञ होते हैं लोग
पावस किसी के लिए
असीम यातना से भरा होता है
अभिमान के चरम पर
अबोलेपन के चाबुक की मार
जितना ही कष्टकर
उन औषधियों को तलाशती हैं आंखें
जिनके रस को निचोड़ कर
हृदय में उपजी असमंजस की पीड़ा को
दूर किया जा सके
■
|| कहने से ज़्यादा लिखे ने सम्मोहित किया ||
उदासी पसंद लोगों को हमेशा
कहने से ज़्यादा
लिखे ने सम्मोहित किया
वो बार- बार पढ़ते रहे उन
अक्षरों शब्दों और वाक्यों में समाहित
मनोभावों को जिन्हें महसूस कर
वो ले सकें
अपने हिस्से की पूरी नींद।
उन्हें सर्वदा रोमांचित करते रहे
एकाकीपन से उपजे
निविड़ मौन की भाषाओं के अनुवाद
जिनमें दोनों पक्षों के सम्वाद
एक ही व्यक्ति द्वारा निभाए गए ।
विदा के ऐन कुछ क्षण पहले
अपने जूते के तस्में बांधने से पूर्व
उन्होंने मेज़ पर खुदरे वर्णों में लिखा
प्रेम ! तुम अनायास मिले
तुम्हारा शुक्रिया ।
इक छोटी चिड़ियां की सुगम
आवा-जाही के लिए देर तलक
खुले रखे खिड़की - दरवाज़े
और बंद कर रखा अपने
कमरे की छत से
झूलते पंखों को ।
जलमाला के उफ़नते दूधिया लहरों में
नहीं उछाले कभी मन्नत के सिक्के
गुज़रे किसी पुल से तो
श्रद्धानत हो उठे दो नयन
केवल बुदबुदाते देखा अधरों को
कहा- पूरे वेग से बहती रहो निर्झरिणी ।
अभी और कितना कुछ ऐसा है
जो शेष रह गया है लिखने को
कि - लिखे जा चुके हैं
असंख्य बार
क्वार में फूले कास की धवलता पर
हिय के मुग्ध होने की बात ।
जीवन में न जाने कितने ही
लोगों के लिखे को पढ़ना बाकी है
अभी सिरहाने के निकट रखी हुई हैं
कुछ बेहद ज़रूरी किताबें
चार छः पोशीदा डायरी
और कुछ मुक्त पन्नों में
लिखे किस्से कहानियां ।
सुना है महज़ लिख देने भर से
अमर हो जातीं हैं भावतरंगें!
अमिट बन जाते हैं शब्दकोश!
स्मृतियों के चांद चमकते रहते हैं
मैंने अक्सर अपने ही कहे से
मुकरते देखा है
विद्वज्जनों को
मगर स्वयं के लिखे
प्रत्येक शब्द की ध्वनि में सदियों तलक
बंधकर रह जाते हैं यहां लोग ।
अनु चक्रवर्ती
C/o एम . के चक्रवर्ती
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